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कविता

अजीमुल्लाक दार्शनिक नहीं

मत्स्येंद्र शुक्ल


उन सावधान चेहरों को ठीक से समझ लो
जो चीजों के एक दाम सुना चुपाई मार लेते हैं
घिसते रोयेंदार खाल मोटी गदोरियाँ
खजाने की कुंजी उठा कहते बाजार गर्म गर्म रहेगा कुछ दिन
सड़क से जुड़ी पहली गली में बैठा मिलता अजीमुल्‍ला
सिर झुका जिस जूते की जाँच कर टाँके दे एक बार
मजाल क्‍या राह चलते उखड़ जाय तल्‍ला
फिर-भी लल्‍ला आनाकानी करते दुअन्‍नी थमाने में
मौज मस्‍ती में अक्‍सर वह कहता प्‍यारी औरत से
शहर जितना बड़ा लोग उतने-ही छोटे यहाँ
धंधे का मामला कहाँ जाऊँ छोड़ कर
धीरज धरो अच्‍छे दिन कभी आएँगे जरूर
एक-सा नहीं गिरता हवा से घुला-मिला बादल का जाल
शहर में गेहूँ नमक कील चमड़े का दाम सुन
अजीमुल्‍ला चौंक कर उछलता काँखता कई तरह
या खुदा कैसे चलेगा आठ पेटों का खर्च
जमीन है कि चल रहा लोटने बिछाने का काम
सोना चाँदी अखरोट चिरौंजी खरीदने में व्‍यस्‍त हैं धनी
एक है अजीमुल्‍ला कि बीस बार टोता मसूर की दाल
तीस बार पूछता दाम पैतीस बार हूँ-हूँ
उदास पाँच किलो गेहूँ खरीद लौटता तिगड्डे की ओर
पूछो बुढ़ाई में औकात से ज्‍यादा मेहनत क्‍यों करते
सिर उठा देगा जवाब पेट से निपटने के लिए
दिन-रात चमड़े से जोड़ना की पड़ता -
कौन दुनियादार जो मुफ्त में देगा जरूरत की चीजें
अजीमुल्‍ला दार्शनिक नहीं नेता अभिनेता नहीं
हिंदुस्‍तान का साधारण नागरिक केवल
फिजूल के तर्क और फसाद के बेहद खिलाफ है अजीमुल्‍ला


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